रविवार, 11 सितंबर 2011

इंतज़ार

बहुत देर किया इंतज़ार
न तुम आये न आया करार
बाहर हो रही है रुक रुक कर फुहार
बदलियों में छुपा है खुला आसमान
अँधेरे सिमट रहे हैं चहुँ ओर
और सिमट गया हूँ मैं
अपनी ही बुनी कविता की
उलझी हुई लकीरों में
ढूँढता हूँ मायने बीते दिनों की
मिटती हुई तस्वीरों में...
जब आओगे एक दिन ले कर
अपनी हंसी की फुहारें
चूम लूँगा उसी पल मैं
तुम्हे, जो छिपी हो कविता की
इन उलझी हुई लकीरों में...

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