सोमवार, 2 अगस्त 2010

दीमक

खबरों कि दुनिया से खबर आई कि लिखते रहिये, कम से कम इस दुनिया में दीमकों कि कमी नहीं है... सच कहा... कलम कागज़ लेकर जो कुछ लिखा था वह सब दीमकों को प्यारी हो गयी , लेकिन यह नहीं पता था कि वेब कि दुनिया में भी दीमक होते हैं.... इस इंतज़ार में कि कोई कुछ लिखे जो न पढने लायक हो तो चबा ही लिया जाय...
कलम छोड़ कर चावीपटल पर उंगलियाँ सिर्फ इसलिए पटकने लगा था कि वेब दुनिया में एक वेब बुनू जिसमे शायद कोई इक्का दुक्का फंसे और मजबूर होकर पढ़े... एक मकड़े की तरह अपने शब्दों का जाल बुन कर बैठा रहा महीनो तक.... तब जाकर कोई फंसा... खबरों कि दुनिया से...
ऐ खबरों कि दुनिया से उभरे दोस्त, तुम्हे सलाम...
बस यूँ ही लिखता रहूँगा, बुनता रहूँगा किस्से कहानियां और इंतज़ार करूँगा अपने बुने हुए इस जाल में किऔर भी कोई आये इधर अकेले.... भटकते हुए...

रविवार, 25 जुलाई 2010

रुक क्यों गए

फिर कई दिनों के बाद एक दोस्त ने पुछा, 'आप रुक क्यों गए?'
सोचने लगा कि मैं कहाँ रुका... न मैं रुका, न समय। जो रुक गयी थी वह थी विचारों कि एक श्रंखला... केवल इस लिए कि उसकी एक कड़ी टूट गयी थी। टूटी हुई उस कड़ी के टुकड़े बिखर गए हैं... ढूँढता हूँ पर सभी टुकड़े नहीं मिल रहे ताकि कड़ी को जोड़ कर विचारों कि उस श्रंखला को जारी रखूं...
आखिर हमारा अस्तित्व ही क्या है? विचार ही तो हमारा अस्तित्व है... यादों में ही तो हम जीते हैं, इस भौतिक अस्तित्व के मरने के बाद भी... हम से पहले जो भी आये और गए इस दुनिया से होते हुए वह केवल विचारों और यादों में ही तो जीवित हैं... भौतिक अस्तित्व मिथ्या है और विचार सत्य... लेकिन सत्य को समझने के लिए भौतिक अस्तित्व जरूरी है... सत्य को समझने के लिए मिथ्या जरूरी है!

सोमवार, 4 जनवरी 2010

कहानियां

कहानियां सुनी और सुनाई जाती हैं... मैं बचपन से सुनता सुनाता आया हूँ... कुछ पढेंगे आप?

एक ज़माना था जब मैं कागज़ कलम ले कर लिखने बैठता था, अपनी लिखाई सुधारनेके लिए। जब लिखावट में सुधार आया तब एक दोस्त ने कहा, 'यार तेरी लिखावट तो सुधर गयी लेकिन लिखी हुई बातों में कहीं कुछ कमी है'।

तब से मैं अपनी लिखी हुई बातों को दुनिया से छुपाने लगा... सब कुछ डायरी के पन्नों में सिमट कर रह गयी सालों तक... डायरियां भर गयीं लिखते लिखते लेकिन कभी हिम्मत नहीं हुई कि किसी को दिखा कर कहूं 'ज़रा पढ़ कर बता यार, कहीं कुछ कमी है...'

बस डायरियां बक्सों और अलमारियों में बंद रहीं... सालों बाद खोल कर देखा तो समझा मेरी लिखाई और लिखावट दोनों दीमकों को बहुत पसंद आयीं...

अब ज़माना वह आ गया है जब कलम मिलते ही नहीं... कोरे कागजों का ढेर है, खाली डायरियों के पन्ने हवा में फडफडा रहे हैं... बस कलम नहीं मिलते... दवात नहीं मिलती...

कहाँ मैं तीन उँगलियों के बीच कलम साधे अपनी कल्पना को पंख देता था किसी ज़माने में... और अब बुढ़ापे में सारी उँगलियों से कसरत हो रही है एक चावीपटल पर...