रविवार, 11 सितंबर 2011

चंद लम्हे

क्यूँ चुप हूँ मैं, क्यूँ गुमसुम
न जानू मैं न मेरी परछाईयाँ
राह चलते सिमट गयी हैं
मुझसे मेरी तन्हाईयाँ
कुछ छोड़ चुके हैं साथ
कुछ छोड़ने वाले हैं
मुझ से मेरे सब हमसफ़र

अब भला क्यूँ साथ दे
आखिरी दम तक कोई बेखबर
चार दिन कि चांदनी में
जो था यार दोस्तों का साथ
यादें उन्ही कि करेंगी रोशन
आगे अँधेरी रात....

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