मंगलवार, 8 नवंबर 2011

सुकून

















सुकून क्या है इस बात का अहसास बरसों पहले इस मज़ार पर आकर पता चला।



बचपन में शाम को घर के बाहर छोटे से मैदान में गेंद तड़ी या किंग्स खेलते हुए दूर पश्चिम कि गोद में उतरते सूरज कि किरनों से इस मज़ार , ईंटों की भट्टी की चिमनी और एक बड़े बरगद के पेड़ की छाओं में वीरान सी खड़ी अंग्रेजों के यादगार की दीवारें चमकती थी कुछ देर... फिर डूबते सूरज की अंतिम किरने इनको अँधेरे का एक लिहाफ उढ़ा कर चली जाती थीं...



अँधेरे की चादर में लिपटी वह दीवारें मुझे जैसे फुसफुसा कर पुकारती थीं... लेकिन अँधेरे की चादर में डर की कितनी ही चुड़ैलें छुपी रहती हैं एक बच्चे के मन के लिए... किशोरावस्था में यही मन चुडैलों के प्रेम पाश में फँस जाता है... अँधेरे की चादरों में लिपटी हुई चुड़ैलें... और रौशनी की दुनिया में तैरती, मचलती चुड़ैलें...



अँधेरे की चादरों में लिपटी हुई चुडैलों की तलाश में मैं वहां जाता शाम को और बड की फैली हुई शाखाओं के बीच बैठा इंतज़ार करता चुडैलों का... एक ही चुड़ैल ने साथ दिया एकांत के उन पलों में.... मन में छुपी कल्पना की चुड़ैल जो रह रह कर उकसाती थी... मेरी कहानी लिखो... मेरे बारे में लिखो...



आज भी कल्पना की चुड़ैल जिंदा है... मन की गहराइयों में कैद कर गयी है अपने आप को, रह रह कर उकसाती रहती है... लिखते रहो लिखते रहो मेरी कहानी... यह कभी ख़त्म नहीं होगी...



एक सुकून की तलाश में मैं निकला था बरसों पहले और कल्पना की चुड़ैल के प्रेम पाश में फँस गया...

















मंगलवार, 27 सितंबर 2011

लिखते लिखते










लिखना एक ज़बरदस्ती थी जो स्कूल में शुरू हुई, होम वर्क के ज़रिये.

इस ज़बरदस्ती को कौन पसंद करता था!
लेकिन एक वक्त वह भी आया जब लिखने में एक अलग मज़ा आने लगा। अपने आप से बातें करने का शायद इस से अच्छा कोई तरीका नहीं था। इस तरह लिखते लिखते अपने आप से बातें करते हम अपने और करीब पहुंचते हैं... यह सच्चाई भी बहुत सालों के बाद समझ आई।
अपने आप को अपनी ही भीड़ में से ढून्ढ निकालने के लिए एक किस्म के सुकून कि ज़रुरत होती है यह बात भी इधर उधर भटकने के बाद समझ आई... हाथी वाला पार्क और १७९८ में बनी वह यादगार जिसकी मिटटी में रोहिल्लों और अंग्रेजों के खून की गर्मी बरकरार थी... ये दो वह जगहें थी जहाँ कलम चलती रही, स्याही सूखती रही...




























सोमवार, 12 सितंबर 2011

सपने अपने





















क्या सपने हैं जो
खुली आँखों से देखती हो
तुम्हारी बंद पलकों में छिपे
सपनों का आदी हो गया हूं
क्या अनकही है अधखुले होंठों पर रुके
तुम्हारी ख़ामोशी का कायल हो चुका हूं...
न सपने दिखाओ तुम, न अपनापन
कि सपने टूट जाते हैं, और
वक़्त का तकाज़ा है
कि अपने छूट जाते हैं...



१६-८-२०११

कल तिरंगा ऊंचा था
आज शर्म से झुक गया है
उठो साथियो हाथ बढाओ
न होने दो यह अत्याचार
एक अन्ना कैद तो क्या
पैदा होंगे और हज़ार

तुम न रुकोगे, न रोकोगे
तो कैसे मिटेगा भला
बढ़ता पनपता यह भ्रष्टाचार !
अपनी अपनी में जमे रहे तो
पैंसठ वर्षी माँ तुम्हारी
देगी तुमको ही दुत्कार

आज वक़्त वह आया है
जो पहले भी आया था
बापू कि आवाज़ ने जब हमारे
बापुओं को जगाया था

न बापू रहे न हमारे बापू
आवाज़ हमारी उठनी है अब
जो बच्चों को जगाएगी
इस देश के कोने ओने में
नए स्वातंत्र्य का दीप जलायेगी...

निगाहें

न झुकेंगी ये निगाहें तो
मेरी कलम कांपती रह जाएगी
न रचेगी कविता न कहानी,
उमस भरी शाम बस एक
याद सुहानी रह जाएगी
साँझ ढले कागज़ कि सलवटों में
अँधेरे सिमट जायेंगे
रात कि स्याही से तुम्हारी तस्वीर
बस खयाली रह जाएगी...

रविवार, 11 सितंबर 2011

सुनी सुनाई बातें

सुनी सुनाई बातें हैं कि
हम कभी गुलाम थे
आधे अधूरे किस्से भी हैं
जंग- ऐ -आज़ादी के
सुनते थे जो हम कभी
दादाजी की बोली में
गूंजती थी नानाजी की
कोठी की दीवारों में
मामाजी की कविताओं में
और मामीजी की लोरी में
काकाजी की बड बड में
और काकीजी के गुस्से में...

आज़ादी में पैदा हम तुम,
आज़ादी में पले बढे
धीरे धीरे उतर गए हम अपनी
करतूतों की खायी में,
एक अन्नाजी ही खड़े हुए हैं
खायी के किनारे पर, क्योंकि
जगह नहीं है उनके लिए
बापूजी के घाट पर,
बाबाजी पिट गए बेचारे
अनशन के चौराहे पर...

गौरव का वह आसमान अब
दूर कहीं चमकता है
वहां फहराता तिरंगा भी
एक तिनका जैसा लगता है
फिर ढून्ढ रहे हम पंखों को
उड़ने की तमन्ना है
हिन्दुस्तानी बनकर फिर से
दूर तिरंगा छूना है...
बस फिर से जय हिंद कहना है...
बस फिर से जय हिंद कहना है...



इंतज़ार

बहुत देर किया इंतज़ार
न तुम आये न आया करार
बाहर हो रही है रुक रुक कर फुहार
बदलियों में छुपा है खुला आसमान
अँधेरे सिमट रहे हैं चहुँ ओर
और सिमट गया हूँ मैं
अपनी ही बुनी कविता की
उलझी हुई लकीरों में
ढूँढता हूँ मायने बीते दिनों की
मिटती हुई तस्वीरों में...
जब आओगे एक दिन ले कर
अपनी हंसी की फुहारें
चूम लूँगा उसी पल मैं
तुम्हे, जो छिपी हो कविता की
इन उलझी हुई लकीरों में...