मंगलवार, 27 सितंबर 2011

लिखते लिखते










लिखना एक ज़बरदस्ती थी जो स्कूल में शुरू हुई, होम वर्क के ज़रिये.

इस ज़बरदस्ती को कौन पसंद करता था!
लेकिन एक वक्त वह भी आया जब लिखने में एक अलग मज़ा आने लगा। अपने आप से बातें करने का शायद इस से अच्छा कोई तरीका नहीं था। इस तरह लिखते लिखते अपने आप से बातें करते हम अपने और करीब पहुंचते हैं... यह सच्चाई भी बहुत सालों के बाद समझ आई।
अपने आप को अपनी ही भीड़ में से ढून्ढ निकालने के लिए एक किस्म के सुकून कि ज़रुरत होती है यह बात भी इधर उधर भटकने के बाद समझ आई... हाथी वाला पार्क और १७९८ में बनी वह यादगार जिसकी मिटटी में रोहिल्लों और अंग्रेजों के खून की गर्मी बरकरार थी... ये दो वह जगहें थी जहाँ कलम चलती रही, स्याही सूखती रही...




























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