एक ज़माना था जब मैं कागज़ कलम ले कर लिखने बैठता था, अपनी लिखाई सुधारनेके लिए। जब लिखावट में सुधार आया तब एक दोस्त ने कहा, 'यार तेरी लिखावट तो सुधर गयी लेकिन लिखी हुई बातों में कहीं कुछ कमी है'।
तब से मैं अपनी लिखी हुई बातों को दुनिया से छुपाने लगा... सब कुछ डायरी के पन्नों में सिमट कर रह गयी सालों तक... डायरियां भर गयीं लिखते लिखते लेकिन कभी हिम्मत नहीं हुई कि किसी को दिखा कर कहूं 'ज़रा पढ़ कर बता यार, कहीं कुछ कमी है...'
बस डायरियां बक्सों और अलमारियों में बंद रहीं... सालों बाद खोल कर देखा तो समझा मेरी लिखाई और लिखावट दोनों दीमकों को बहुत पसंद आयीं...
अब ज़माना वह आ गया है जब कलम मिलते ही नहीं... कोरे कागजों का ढेर है, खाली डायरियों के पन्ने हवा में फडफडा रहे हैं... बस कलम नहीं मिलते... दवात नहीं मिलती...
कहाँ मैं तीन उँगलियों के बीच कलम साधे अपनी कल्पना को पंख देता था किसी ज़माने में... और अब बुढ़ापे में सारी उँगलियों से कसरत हो रही है एक चावीपटल पर...
aap ruk kyun gaye?
जवाब देंहटाएंहरिमोहन जी लिखते रहिए दीमक बाहर भी हैं । उन्हें भी चाहिये ।आप हिंदी में लिखते हैं। अच्छा लगता है। मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं। अच्छा लेखन ,बधाई ।
जवाब देंहटाएं-आशुतोष मिश्र ,रायपुर छत्तीसगढ़